बोली लगी मता-ए-हुनर की तो अहल-ए-फ़न
जल्दी में अपने ख़्वाब भी नीलाम कर गए
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कल पहली बार उस से इनायत सी हो गई
जैसे कि इक फ़्रेम हो तस्वीर के बग़ैर
वो मुझ से पूछने लगा मेरे सवाल अब
मिट्टी तिरे महकने से मुझ को गुमान है
क्यूँ मिल रही है उन को सज़ा चीख़ती रही
ये कैसे ख़ौफ़ हमें आज फिर सताने लगे
अपने लिए भी कोई रिआयत रवा नहीं
कुछ मारके हमारे भी हम तक ही रह गए
राहत के वास्ते न रिफ़ाक़त के वास्ते
इस पल दो पल की हस्ती में
इन से आवाज़-ए-कर्ब आती है