वो मुझ से पूछने लगा मेरे सवाल अब
और मैं भी दे रहा हूँ जो इस के जवाब थे
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कल पहली बार उस से इनायत सी हो गई
इन से आवाज़-ए-कर्ब आती है
क्यूँ मिल रही है उन को सज़ा चीख़ती रही
मिट्टी तिरे महकने से मुझ को गुमान है
अपने लिए भी कोई रिआयत रवा नहीं
ये कैसे ख़ौफ़ हमें आज फिर सताने लगे
बोली लगी मता-ए-हुनर की तो अहल-ए-फ़न
फ़क़ीह-ए-शहर से कुछ ख़ास दुश्मनी तो नहीं
इस पल दो पल की हस्ती में
जैसे कि इक फ़्रेम हो तस्वीर के बग़ैर
तुझ को ही सोचता रहूँ फ़ुर्सत नहीं रही
कुछ मारके हमारे भी हम तक ही रह गए