अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
इस बात को जाने दो कि मशहूर नहीं है
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मिल जाएँ अज़दहाम में हम ही ये हम से दूर
मुहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
बंद महरम के वो खुलवातें हैं हम से बेशतर
चले हो दश्त को 'नाज़िम' अगर मिले मजनूँ
क्या मेरे काम से है रवाई को दुश्मनी
कहते हैं छुप के रात को पीता है रोज़ मय
कम समझते नहीं हम ख़ुल्द से मयख़ाने को
चाहूँ कि हाल-ए-वहशत-ए-दिल कुछ रक़म करूँ
ईद है हम ने भी जाना कि न होती गर ईद
'नाज़िम' ये इंतिज़ाम रिआ'यत है नाम की
शाएर बने नदीम बने क़िस्सा-ख़्वाँ बने
क्या खाएँ हम वफ़ा में अब ईमान की क़सम