एक है जब मरजा-ए-इस्लाम-ओ-कुफ़्र
फ़र्क़ कैसा सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार का
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बर-सर-ए-लुत्फ़ आज चश्म-ए-दिल-रुबा थी मैं न था
जानाँ को सर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा है झूट सब
जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ
हम को हवस-ए-जल्वा-गाह-ए-तूर नहीं है
थी आसमाँ पे मेरी चढ़ाई तमाम रात
मोहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
ईद के दिन जाइए क्यूँ ईद-गाह
अंदाज़-ओ-अदा से कुछ अगर पहचानूँ
फैला के तसव्वुर के असर को मैं ने
मैं ने कहा कि दा'वा-ए-उलफ़त मगर ग़लत
बाक़ी न रही हाथ में जब क़ुव्वत-ओ-ज़ोर
'नाज़िम' उसे ख़त में कहते हो क्या लिखिए