घर की वीरानी को क्या रोऊँ कि ये पहले सी
तंग इतना है कि गुंजाइश-ए-ता'मीर नहीं
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है दौर-ए-फ़लक ज़ोफ़ में पेश-ए-नज़र अपने
जानाँ को सर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा है झूट सब
मुहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
थी आसमाँ पे मेरी चढ़ाई तमाम रात
शबिस्ताँ में रहो बाग़ों में खेलो मुझ से क्यूँ पूछो
'नाज़िम' उसे ख़त में कहते हो क्या लिखिए
हम को हवस-ए-जल्वा-गाह-ए-तूर नहीं है
यहाँ काल से है तरह तरह की तकलीफ़
कलाम-ए-सख़्त कह कह कर वो क्या हम पर बरसते हैं
फूँक दो याँ गर ख़स-ओ-ख़ाशाक हैं
कभी ख़ूँ होती हुए और कभी जलते देखा