है ईद मय-कदे को चलो देखता है कौन
शहद ओ शकर पे टूट पड़े रोज़ा-दार आज
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कुफ़्र-ओ-ईमाँ से है क्या बहस इक तमन्ना चाहिए
जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ
मैं ने कहा कि दा'वा-ए-उलफ़त मगर ग़लत
साहिल पर आ के लगती है टक्कर सफ़ीने को
जाँ-फ़िशानी का वाँ हिसाब अबस
बोसा-ए-आरिज़ मुझे देते हुए डरता है क्यूँ
कम समझते नहीं हम ख़ुल्द से मयख़ाने को
फैला के तसव्वुर के असर को मैं ने
बरसों ढूँडा किए हम दैर-ओ-हरम में लेकिन
रोने की ये शिद्दत है कि घबरा गईं आँखें
न बुज़ला-संज न शाएर न शोख़-तब्अ रक़ीब
क्या मेरे काम से है रवाई को दुश्मनी