हक़ ये है कि का'बे की बिना भी न पड़ी थी
हैं जब से दर-ए-बुत-कदा पर ख़ाक-नशीं हम
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बोसा-ए-आरिज़ मुझे देते हुए डरता है क्यूँ
मोहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
जुम्बिश अबरू को है लेकिन नहीं आशिक़ पे निगाह
दिल में उतरी है निगह रह गईं बाहर पलकें
सज्जादा है मेरा फ़लक-ए-नीली-फ़ाम
फैला के तसव्वुर के असर को मैं ने
वो चश्मा दिला कहाँ से पैदा होगा
बाक़ी न रही हाथ में जब क़ुव्वत-ओ-ज़ोर
कहते हैं छुप के रात को पीता है रोज़ मय
उस बुत का कूचा मस्जिद-ए-जामे नहीं है शैख़
सूरत वो पहली कि हो मगर माह-ए-तमाम
सँभाल वाइ'ज़ ज़बान अपनी ख़ुदा से डरा इक ज़रा हया कर