ईद है हम ने भी जाना कि न होती गर ईद
मय-फ़रोश आज दर-ए-मय-कदा क्यूँ वा करता
Gulzar
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Parveen Shakir
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Habib Jalib
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तेरे दर से मैं उठा लेकिन न मेरा दिल उठा
गर अक़्ल-ओ-शुऊर की रसाई होती
क़ाज़ी के मुँह पे मारी है बोतल शराब की
आ गया ध्यान में मज़मूँ तिरी यकताई का
हम उन की नज़र में समाने लगे
अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
सज्जादा है मेरा फ़लक-ए-नीली-फ़ाम
थी आसमाँ पे मेरी चढ़ाई तमाम रात
यहाँ काल से है तरह तरह की तकलीफ़
है रिश्ता एक फिर ये कशाकश न चाहिए
चाहूँ कि हाल-ए-वहशत-ए-दिल कुछ रक़म करूँ
कहाँ है तू कहाँ है और मैं हूँ