जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ
ओहदा ख़ुर्शीद ने पाया है मसीहाई का
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फूँक दो याँ गर ख़स-ओ-ख़ाशाक हैं
क्या मेरे काम से है रवाई को दुश्मनी
न बुज़ला-संज न शाएर न शोख़-तब्अ रक़ीब
रोने ने मिरे सैकड़ों घर ढा दिये लेकिन
क़ाज़ी के मुँह पे मारी है बोतल शराब की
सँभाल वाइ'ज़ ज़बान अपनी ख़ुदा से डरा इक ज़रा हया कर
रोने की ये शिद्दत है कि घबरा गईं आँखें
वही गुल है गुलिस्ताँ में वही है शम्अ' महफ़िल में
बाक़ी न रही हाथ में जब क़ुव्वत-ओ-ज़ोर
उलझे जो रक़ीब से वो कल पी के शराब
मैं ने कहा कि दा'वा-ए-उलफ़त मगर ग़लत
जुम्बिश अबरू को है लेकिन नहीं आशिक़ पे निगाह