पुर्सिश को अगर होंट तुम्हारे नहीं हिलते
क्या क़त्ल को भी हाथ तुम्हारा नहीं उठता
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ऐ नोश-ए-लब-ओ-माह-रुख़-ओ-ज़ोहरा-जबीं
ईद है हम ने भी जाना कि न होती गर ईद
हम को हवस-ए-जल्वा-गाह-ए-तूर नहीं है
रोने ने मिरे सैकड़ों घर ढा दिये लेकिन
इस तवक़्क़ो' पे कि देखूँ कभी आते जाते
क्या खाएँ हम वफ़ा में अब ईमान की क़सम
थी आसमाँ पे मेरी चढ़ाई तमाम रात
ये बंदा-ए-ख़ाकसार या'नी 'नाज़िम'
बंद महरम के वो खुलवातें हैं हम से बेशतर
जाँ-फ़िशानी का वाँ हिसाब अबस
भला क्या ता'ना दूँ ज़ुहहाद को ज़ुहद-ए-रियाई का
हो हिन्द का मद्ह-ख़्वाँ बरस में दो बार