वही माबूद है 'नाज़िम' जो है महबूब अपना
काम कुछ हम को न मस्जिद से न बुत-ख़ाने से
Javed Akhtar
Ahmad Faraz
Parveen Shakir
Mir Taqi Mir
Allama Iqbal
Wasi Shah
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(590) Peoples Rate This
ये बंदा-ए-ख़ाकसार या'नी 'नाज़िम'
क्या मेरे काम से है रवाई को दुश्मनी
उस बुत का कूचा मस्जिद-ए-जामे नहीं है शैख़
हक़ ये है कि का'बे की बिना भी न पड़ी थी
क़ाज़ी के मुँह पे मारी है बोतल शराब की
कभी ख़ूँ होती हुए और कभी जलते देखा
सँभाल वाइ'ज़ ज़बान अपनी ख़ुदा से डरा इक ज़रा हया कर
थी आसमाँ पे मेरी चढ़ाई तमाम रात
अंदाज़-ओ-अदा से कुछ अगर पहचानूँ
बे-दिए ले उड़ा कबूतर ख़त
एक है जब मरजा-ए-इस्लाम-ओ-कुफ़्र
इख़्लास की धोके पर हूँ माइल तेरा