ये किस ज़ोहरा-जबीं की अंजुमन में आमद आमद है
बिछाया है क़मर ने चाँदनी का फ़र्श महफ़िल में
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एक है जब मरजा-ए-इस्लाम-ओ-कुफ़्र
हर चंद लुत्फ़-ओ-मेहरबानी पेश आए
हम उन की नज़र में समाने लगे
जब तिरा नाम सुना तो नज़र आया गोया
हो हिन्द का मद्ह-ख़्वाँ बरस में दो बार
है दौर-ए-फ़लक ज़ोफ़ में पेश-ए-नज़र अपने
मोहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
बर-सर-ए-लुत्फ़ आज चश्म-ए-दिल-रुबा थी मैं न था
चले हो दश्त को 'नाज़िम' अगर मिले मजनूँ
भला क्या ता'ना दूँ ज़ुहहाद को ज़ुहद-ए-रियाई का
ईद है हम ने भी जाना कि न होती गर ईद