बाक़ी न रही हाथ में जब क़ुव्वत-ओ-ज़ोर
बन जाए न क्यूँ उक़्दा-ए-ख़ातिर हर पोर
पीरी है अगर शब-ए-जवानी की सहर
इस सुब्ह की शाम क्या है तारीकी-ए-गोर
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जब तिरा नाम सुना तो नज़र आया गोया
गर कहे हुलूल है वो इक अमर क़बीह
नागाह मुझे दिखा के ताब-ए-रुख़्सार
कहते हो सब कि तुझ से ख़फ़ा हो गया है यार
सँभाल वाइ'ज़ ज़बान अपनी ख़ुदा से डरा इक ज़रा हया कर
हम ने सौ सौ तरह बनाई बात
बे दिए ले उड़ा कबूतर ख़त
अंदाज़-ओ-अदा से कुछ अगर पहचानूँ
मुहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
दिल में उतरी है निगह रह गईं बाहर पलकें
तेरे दर से मैं उठा लेकिन न मेरा दिल उठा