गो कुछ भी वो मुँह सी नहीं फ़रमाते हैं
शीरीं सुख़नी का हम मज़ा पाते हैं
अल्फ़ाज़ कुछ उन के मुँह में गिरानी हैं
लब खुल नहीं सकते बंद हो जाते हैं
Habib Jalib
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है आईना-ख़ाने में तिरा ज़ौक़-फ़ज़ा रक़्स
ये बंदा-ए-ख़ाकसार या'नी 'नाज़िम'
जानाँ को सर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा है झूट सब
कम समझते नहीं हम ख़ुल्द से मयख़ाने को
सँभाल वाइ'ज़ ज़बान अपनी ख़ुदा से डरा इक ज़रा हया कर
चले हो दश्त को 'नाज़िम' अगर मिले मजनूँ
है ईद मय-कदे को चलो देखता है कौन
बाक़ी न रही हाथ में जब क़ुव्वत-ओ-ज़ोर
ईद है हम ने भी जाना कि न होती गर ईद
चाहूँ कि हाल-ए-वहशत-ए-दिल कुछ रक़म करूँ
जाँ-फ़िशानी का वाँ हिसाब अबस
बे-दिए ले उड़ा कबूतर ख़त