सूरत वो भली कि हो मगर माह-ए-तमाम
सीरत वो बुरी कि हो मगर वाली-ए-शाम
अच्छा होना बुरा नहीं है ज़िन्हार
क्यूँ ख़ू की बुरी न हो की हुए हो बदनाम
Gulzar
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बे-दिए ले उड़ा कबूतर ख़त
सूरत वो पहली कि हो मगर माह-ए-तमाम
कहते हो सब कि तुझ से ख़फ़ा हो गया है यार
गर अक़्ल-ओ-शुऊर की रसाई होती
रोज़ा रखता हूँ सुबूही पी के हंगाम-ए-सहर
'नाज़िम' ये इंतिज़ाम रिआ'यत है नाम की
जाँ-फ़िशानी का वाँ हिसाब अबस
इस तवक़्क़ो' पे कि देखूँ कभी आते जाते
एक है जब मरजा-ए-इस्लाम-ओ-कुफ़्र
है ईद मय-कदे को चलो देखता है कौन
बाक़ी न रही हाथ में जब क़ुव्वत-ओ-ज़ोर
जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ