हर तरफ़ हश्र में झंकार है ज़ंजीरों की
उन की ज़ुल्फ़ों के गिरफ़्तार चले आते हैं
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जलूँगा मैं कि दिल उस बुत का ग़ैर पर आया
मुँह जो फ़ुर्क़त में ज़र्द रहता है
कभी तो शहीदों की क़ब्रों पे आओ
शोला-ए-हुस्न से था दूद-ए-दिल अपना अव्वल
तमाम उम्र कमी की कभी न पानी ने
बहुत मुज़िर दिल-ए-आशिक़ को आह होती है
मुंतज़िर तेरे हैं चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ खोले हुए
नज्द से जानिब-ए-लैला जो हवा आती है
चिराग़-दाग़ मैं दिन से जलाए बैठा हूँ
मुझ से क्या पूछते हो दाग़ हैं दिल में कितने
उठते जाते हैं बज़्म-ए-आलम से