ग़म-ए-ज़िंदगी इक मुसलसल अज़ाब
ग़म-ए-ज़िंदगी से मफ़र भी नहीं
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दौर-ए-तूफ़ाँ में भी जी लेते हैं जीने वाले
रहगुज़र हो या मुसाफ़िर नींद जिस को आए है
छटे ग़ुबार-ए-नज़र बाम-ए-तूर आ जाए
क़ुसूर इश्क़ में ज़ाहिर है सब हमारा था
जुनूँ में और ख़िरद में दर-हक़ीक़त फ़र्क़ इतना है
सवाद-ए-ग़म में कहीं गोशा-ए-अमाँ न मिला
वो नाज़ुक सा तबस्सुम रह गया वहम-ए-हसीं बन कर
मंज़िलों से बेगाना आज भी सफ़र मेरा
मिरी सहबा-परस्ती मोरीद-ए-इल्ज़ाम है साक़ी
हम एक उम्र जले शम-ए-रहगुज़र की तरह
लुत्फ़ ये है जिसे आशोब-ए-जहाँ कहता हूँ
सर-ता-ब-क़दम एक हसीं राज़ का आलम