ग़ुबार-ए-राह चला साथ ये भी क्या कम है
सफ़र में और कोई हम-सफ़र मिले न मिले
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छटे ग़ुबार-ए-नज़र बाम-ए-तूर आ जाए
हमारी तरह ख़राब-ए-सफ़र न हो कोई
छटे ग़ुबार नज़र बाम-ए-तूर आ जाए
ये चार दिन की रिफ़ाक़त भी कम नहीं ऐ दोस्त
जुनूँ ख़ुद-नुमा ख़ुद-नगर भी नहीं
उधर चमन में ज़र-ए-गुल लुटा इधर 'ताबाँ'
लुत्फ़ ये है जिसे आशोब-ए-जहाँ कहता हूँ
जुनूँ में और ख़िरद में दर-हक़ीक़त फ़र्क़ इतना है
रह-ए-तलब में किसे आरज़ू-ए-मंज़िल है
रहगुज़र हो या मुसाफ़िर नींद जिस को आए है
जल्वा पाबंद-ए-नज़र भी है नज़र-साज़ भी है
जुनूँ ख़ुद-नुमा ख़ुद-निगर भी नहीं