जुनूँ में और ख़िरद में दर-हक़ीक़त फ़र्क़ इतना है
वो ज़ेर-ए-दर है साक़ी और ये ज़ेर-ए-दाम है साक़ी
Anwar Masood
Gulzar
Allama Iqbal
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Rahat Indori
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Habib Jalib
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मिलेगा दर्द तो दरमाँ की आरज़ू होगी
शौक़ के ख़्वाब-ए-परेशाँ की हैं तफ़्सीरें बहुत
शरह-ए-जाँ-सोज़-ए-ग़म-ए-अर्ज़-ए-वफ़ा क्या करते
जनाब-ए-शैख़ समझते हैं ख़ूब रिंदों को
रह-ए-तलब में किसे आरज़ू-ए-मंज़िल है
ये मय-कदा है कलीसा ओ ख़ानक़ाह नहीं
ज़िंदगी दिल पे अजब सेहर सा करती जाए
ग़म-ए-ज़िंदगी इक मुसलसल अज़ाब
मिरी सहबा-परस्ती मोरीद-ए-इल्ज़ाम है साक़ी
नुमू के फ़ैज़ से रंग-ए-चमन निखर सा गया
मंज़िलें राह में थीं नक़्श-ए-क़दम की सूरत