लब-ए-निगार को ज़हमत न दो ख़ुदा के लिए
हम अहल-ए-शौक़ ज़बान-ए-नज़र समझते हैं
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सर-ता-ब-क़दम एक हसीं राज़ का आलम
रह-ए-तलब में किसे आरज़ू-ए-मंज़िल है
ये चार दिन की रिफ़ाक़त भी कम नहीं ऐ दोस्त
ये मय-कदा है कलीसा ओ ख़ानक़ाह नहीं
निखर गए हैं पसीने में भीग कर आरिज़
यादों के साए हैं न उमीदों के हैं चराग़
मिलेगा दर्द तो दरमाँ की आरज़ू होगी
सवाद-ए-ग़म में कहीं गोशा-ए-अमाँ न मिला
तुम्हीं बताओ पुकारा है बार बार किसे
भूले तो जैसे रब्त कोई दरमियाँ न था
छटे ग़ुबार-ए-नज़र बाम-ए-तूर आ जाए