मैं ने कब दावा-ए-इल्हाम किया है 'ताबाँ'
लिख दिया करता हूँ जो दिल पे गुज़रती जाए
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जुनूँ ख़ुद-नुमा ख़ुद-निगर भी नहीं
जनाब-ए-शैख़ समझते हैं ख़ूब रिंदों को
बस्ती में कमी किस चीज़ की है पत्थर भी बहुत शीशे भी बहुत
शौक़ का तक़ाज़ा है शरह-ए-आरज़ू कीजे
हम एक उम्र जले शम-ए-रहगुज़र की तरह
आँसुओं से कोई आवाज़ को निस्बत न सही
दौर-ए-तूफ़ाँ में भी जी लेते हैं जीने वाले
कमाल-ए-बे-ख़बरी को ख़बर समझते हैं
मिरी सहबा-परस्ती मोरीद-ए-इल्ज़ाम है साक़ी
किसी के हाथ में जाम-ए-शराब आया है
ग़म-ए-ज़िंदगी इक मुसलसल अज़ाब
यादों के साए हैं न उमीदों के हैं चराग़