निखर गए हैं पसीने में भीग कर आरिज़
गुलों ने और भी शबनम से ताज़गी पाई
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मिलेगा दर्द तो दरमाँ की आरज़ू होगी
मंज़िलें राह में थीं नक़्श-ए-क़दम की सूरत
बस्तियों में होने को हादसे भी होते हैं
लाई तिरी महफ़िल में मुझे आरज़ू-ए-दीद
एक तुम ही नहीं दुनिया में जफ़ाकार बहुत
उधर चमन में ज़र-ए-गुल लुटा इधर 'ताबाँ'
छटे ग़ुबार-ए-नज़र बाम-ए-तूर आ जाए
कमाल-ए-बे-ख़बरी को ख़बर समझते हैं
बहार आई गुल-अफ़्शानियों के दिन आए
हम एक उम्र जले शम-ए-रहगुज़र की तरह
ग़ुबार-ए-राह चला साथ ये भी क्या कम है
लुत्फ़ ये है जिसे आशोब-ए-जहाँ कहता हूँ