शबाब-ए-हुस्न है बर्क़-ओ-शरर की मंज़िल है
ये आज़माइश-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र की मंज़िल है
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दाद भी फ़ित्ना-ए-बेदाद भी क़ातिल की तरफ़
ये चार दिन की रिफ़ाक़त भी कम नहीं ऐ दोस्त
हमारी तरह ख़राब-ए-सफ़र न हो कोई
क़ुसूर इश्क़ में ज़ाहिर है सब हमारा था
ग़ुबार-ए-राह चला साथ ये भी क्या कम है
किसी के हाथ में जाम-ए-शराब आया है
छटे ग़ुबार-ए-नज़र बाम-ए-तूर आ जाए
मिलेगा दर्द तो दरमाँ की आरज़ू होगी
जल्वा पाबंद-ए-नज़र भी है नज़र-साज़ भी है
हम एक उम्र जले शम-ए-रहगुज़र की तरह
सवाद-ए-ग़म में कहीं गोशा-ए-अमाँ न मिला