ये चार दिन की रिफ़ाक़त भी कम नहीं ऐ दोस्त
तमाम उम्र भला कौन साथ देता है
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जुनूँ ख़ुद-नुमा ख़ुद-नगर भी नहीं
मंज़िलों से बेगाना आज भी सफ़र मेरा
बस्ती में कमी किस चीज़ की है पत्थर भी बहुत शीशे भी बहुत
ये हुजुम-ए-रस्म-ओ-रह दुनिया की पाबंदी भी है
भूले तो जैसे रब्त कोई दरमियाँ न था
हमारी तरह ख़राब-ए-सफ़र न हो कोई
बस्तियों में होने को हादसे भी होते हैं
जल्वा पाबंद-ए-नज़र भी है नज़र-साज़ भी है
बड़े बड़ों के क़दम डगमगा गए 'ताबाँ'
ग़म-ए-ज़िंदगी इक मुसलसल अज़ाब
शरह-ए-जाँ-सोज़-ए-ग़म-ए-अर्ज़-ए-वफ़ा क्या करते