ये मय-कदा है कलीसा ओ ख़ानक़ाह नहीं
उरूज-ए-फ़िक्र ओ फ़रोग़-ए-नज़र की मंज़िल है
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ग़म-ए-ज़िंदगी इक मुसलसल अज़ाब
लाई तिरी महफ़िल में मुझे आरज़ू-ए-दीद
निखर गए हैं पसीने में भीग कर आरिज़
वो नाज़ुक सा तबस्सुम रह गया वहम-ए-हसीं बन कर
दौर-ए-तूफ़ाँ में भी जी लेते हैं जीने वाले
जुनूँ ख़ुद-नुमा ख़ुद-नगर भी नहीं
हुजूम-ए-दर्द का इतना बढ़े असर गुम हो
लुत्फ़ ये है जिसे आशोब-ए-जहाँ कहता हूँ
बस्ती में कमी किस चीज़ की है पत्थर भी बहुत शीशे भी बहुत
शरह-ए-जाँ-सोज़-ए-ग़म-ए-अर्ज़-ए-वफ़ा क्या करते
ये हुजुम-ए-रस्म-ओ-रह दुनिया की पाबंदी भी है