बरसों पहले जिस दरिया में उतरा था
अब तक उस की गहराई है आँखों में
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ये जो शीशा है दिल-नुमा मुझ में
रहता है ज़ेहन ओ दिल में जो एहसास की तरह
ये जो माज़ी की बात करते हैं
इक अनोखी रस्म को ज़िंदा रखा है
सोच अपनी ज़ात तक महदूद है
तुम हमारे ख़ून की क़ीमत न पूछो
तीरगी की क्या अजब तरकीब है ये
मौसम-ए-गुल बहार के दिन थे
मैं तिरे हिज्र में जो ज़िंदा हूँ
हर्फ़
शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूँ