जो तिरे इंतिज़ार में गुज़रे
बस वही इंतिज़ार के दिन थे
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बढ़ रहा हूँ ख़याल से आगे
ये जो शीशा है दिल-नुमा मुझ में
ये जो माज़ी की बात करते हैं
हर्फ़
मैं तिरे हिज्र में जो ज़िंदा हूँ
सोच अपनी ज़ात तक महदूद है
तासीर नहीं रहती अल्फ़ाज़ की बंदिश में
ख़्वाहिशों की बादशाही कुछ नहीं
इन बातों पर मत जाना जो आम हुईं
मौसम-ए-गुल बहार के दिन थे
इक अनोखी रस्म को ज़िंदा रखा है