रहता है ज़ेहन ओ दिल में जो एहसास की तरह
उस का कोई पता भी ज़रूरी नहीं कि हो
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मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का
इक अनोखी रस्म को ज़िंदा रखा है
ख़्वाहिशों की बादशाही कुछ नहीं
तीरगी की क्या अजब तरकीब है ये
मौसम-ए-गुल बहार के दिन थे
इन बातों पर मत जाना जो आम हुईं
ये जो माज़ी की बात करते हैं
बढ़ रहा हूँ ख़याल से आगे
मैं तिरे हिज्र में जो ज़िंदा हूँ
बरसों पहले जिस दरिया में उतरा था
ये जो शीशा है दिल-नुमा मुझ में