शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूँ
ज़ेहन में पर गाँव का नक़्शा रखा है
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ये जो माज़ी की बात करते हैं
मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का
ये जो शीशा है दिल-नुमा मुझ में
तुम हमारे ख़ून की क़ीमत न पूछो
बरसों पहले जिस दरिया में उतरा था
मैं तिरे हिज्र में जो ज़िंदा हूँ
हर्फ़
मैं उस की मोहब्बत से इक दिन भी मुकर जाता
सोच अपनी ज़ात तक महदूद है
तासीर नहीं रहती अल्फ़ाज़ की बंदिश में
जो तिरे इंतिज़ार में गुज़रे
तीरगी की क्या अजब तरकीब है ये