सोच अपनी ज़ात तक महदूद है
ज़ेहन की क्या ये तबाही कुछ नहीं
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हर्फ़
बरसों पहले जिस दरिया में उतरा था
रहता है ज़ेहन ओ दिल में जो एहसास की तरह
मैं तिरे हिज्र में जो ज़िंदा हूँ
इक अनोखी रस्म को ज़िंदा रखा है
ख़्वाहिशों की बादशाही कुछ नहीं
तुम हमारे ख़ून की क़ीमत न पूछो
ये जो माज़ी की बात करते हैं
तीरगी की क्या अजब तरकीब है ये
हर दर्द की दवा भी ज़रूरी नहीं कि हो
इन बातों पर मत जाना जो आम हुईं
मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का