अब आसमान भी कम पड़ रहे हैं उस के लिए
क़दम ज़मीन पर रक्खा था जिस ने डरते हुए
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कोई कब दीवार बना है मेरे सफ़र में
आज किस ख़्वाब की ताबीर नज़र आई है
तुझ को इस तरह कहाँ छोड़ के जाना था हमें
खोल देते हैं पलट आने पे दरवाज़ा-ए-दिल
मिरी निगाह किसी ज़ाविए पे ठहरे भी
अभी तो मंसब-ए-हस्ती से मैं हटा ही नहीं
वो ख़ुद गया है उस का असर तो नहीं गया
ये ख़याल था कभी ख़्वाब में तुझे देखते
अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए
तिरे ख़याल की लौ ही सफ़र में काम आई