ये ख़याल था कभी ख़्वाब में तुझे देखते
कभी ज़िंदगी की किताब में तुझे देखते
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पोशीदा किसी ज़ात में पहले भी कहीं था
इस रात किसी और क़लम-रौ में कहीं था
सारी तरतीब-ए-ज़मानी मिरी देखी हुई है
वो आईना है तो हैरत किसी जमाल की हो
मिरी निगाह किसी ज़ाविए पे ठहरे भी
दर-ओ-बस्त-ए-अनासिर पारा पारा होने वाला है
ब-नाम-ए-इश्क़ यही एक काम करते हैं
मुझे ज़िंदगी से ख़िराज ही नहीं मिल रहा
अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए
फिर इस से क़ब्ल कि बार-ए-दिगर बनाया जाए
अजब नहीं दर-ओ-दीवार जैसे हो जाएँ