इस लहजे से बात नहीं बन पाएगी
तलवारों से कैसे काँटे निकलेंगे
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सारे ज़ख़्मों को ज़बाँ मिल गई ग़म बोलते हैं
लहु लहु आँखें
जौन-एलिया से आख़री मुलाक़ात
कोई शिकवा न शिकायत न वज़ाहत कोई
अजब ग़रीबी के आलम में मर गया इक शख़्स
वो लोग भी तो किनारों पे आ के डूब गए
न तुम मिले थे तो दुनिया चराग़-पा भी न थी
ज़ेहन पर बोझ रहा, दिल भी परेशान हुआ
नज़र नज़र से मिला कर कलाम कर आया
वो मेरे ख़्वाब की ताबीर तो बताए मुझे
कभी न आएँगे जाने वाले
किसी जवाज़ का होना ही क्या ज़रूरी है