'तस्कीन' करूँ क्या दिल-ए-मुज़्तर का इलाज अब
कम-बख़्त को मर कर भी तो आराम न आया
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'तस्कीं' ने नाम ले के तिरा वक़्त-ए-मर्ग आह
इतनी न कीजे जाने की जल्दी शब-ए-विसाल
उस कू मैं हुए हम वो लब-ए-बाम न आया
ख़ूब-सूरत न हो कोई तो न हो बदनामी
करता हूँ तेरी ज़ुल्फ़ से दिल का मुबादला
कर सके दफ़्न न उस कूचे में अहबाब मुझे
हुए थे भाग के पर्दे में तुम निहाँ क्यूँकर
फ़र्क़ कुछ तो चाहिए अग़्यार से
बे-मेहर कहते हो उसे जो बेवफ़ा नहीं
तुम ग़ैर से मिलो न मिलो मैं तो छोड़ दूँ
दिल किस की तेग़-ए-नाज़ से लज़्ज़त-चशीदा है
शब-ए-विसाल में सुनना पड़ा फ़साना-ए-ग़ैर