ज़ब्त करता हूँ वले इस पर भी है ये जोश-ए-अश्क
गिर पड़ा जो आँख से क़तरा वो दरिया हो गया
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'तस्कीं' ने नाम ले के तिरा वक़्त-ए-मर्ग आह
जिस वक़्त नज़र पड़ती है उस शोख़ पे 'तस्कीं'
पूछे जो तुझ से कोई कि 'तस्कीं' से क्यूँ मिला
शब-ए-विसाल में सुनना पड़ा फ़साना-ए-ग़ैर
गर मेरे बैठने से वो आज़ार खींचते
तू क्यूँ पास से उठ चला बैठे बैठे
इतनी न कीजे जाने की जल्दी शब-ए-विसाल
रहने वालों को तिरे कूचे के ये क्या हो गया
हुए थे भाग के पर्दे में तुम निहाँ क्यूँकर
नाम लोगे जो याँ से जाने का
फ़र्क़ कुछ तो चाहिए अग़्यार से
ख़ूब-सूरत न हो कोई तो न हो बदनामी