है ये पुर-दर्द दास्ताँ 'महरूम'
क्या सुनाएँ किसी को हाल अपना
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हम भूल को अपनी इल्म-ओ-फ़न समझे हैं
क़तरा समझे हक़ीक़त-ए-दरिया क्या
न रही बे-ख़ुदी-ए-शौक़ में इतनी भी ख़बर
सितम कोई नया ईजाद करना
अक़्ल को क्यूँ बताएँ इश्क़ का राज़
उड़ते देखा जो ताइर-ए-पर्रां को
काला इंसान हो या कोई ज़र्द इंसान
ताइर-ए-दिल के लिए ज़ुल्फ़ का जाल अच्छा है
बदनाम हूँ पर आशिक़-ए-बदनाम तुम्हारा
कम न थी सहरा से कुछ भी ख़ाना-वीरानी मिरी
हर राह में है राह-नुमा नाम तिरा
वो आई शाम-ए-ग़म वक़्फ़-ए-बला होने का वक़्त आया