न इल्म है न ज़बाँ है तो किस लिए 'महरूम'
तुम अपने आप को शाइर ख़याल कर बैठे
Gulzar
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इस का गिला नहीं कि दुआ बे-असर गई
दस्त-ए-ख़िरद से पर्दा-कुशाई न हो सकी
ख़ाक-ए-हिंद
जब काली घटाएँ झूम कर आती हैं
साफ़ आता है नज़र अंजाम हर आग़ाज़ का
हिज्राँ की शब जो दर्द के मारे उदास हैं
है ये पुर-दर्द दास्ताँ 'महरूम'
जंगल की ये दिल-नशीं फ़ज़ा ये बरसात
क़तरा समझे हक़ीक़त-ए-दरिया क्या
बाद-ए-तर्क-ए-आरज़ू बैठा हूँ कैसा मुतमइन
नूर-जहाँ का मज़ार