न रही बे-ख़ुदी-ए-शौक़ में इतनी भी ख़बर
हिज्र अच्छा है कि 'महरूम' विसाल अच्छा है
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यूँ तो बरसों न पिलाऊँ न पियूँ ऐ ज़ाहिद
है ये पुर-दर्द दास्ताँ 'महरूम'
होते हैं ख़ुश किसी की सितम-रानियों से हम
ये फ़ितरत का तक़ाज़ा था कि चाहा ख़ूब-रूओं को
तलातुम आरज़ू में है न तूफ़ाँ जुस्तुजू में है
तस्वीर-ए-रहमत
काला इंसान हो या कोई ज़र्द इंसान
ताइर-ए-दिल के लिए ज़ुल्फ़ का जाल अच्छा है
किसी की याद को हम ज़ीस्त का हासिल समझते हैं
हिज्राँ की शब जो दर्द के मारे उदास हैं
ख़ाक-ए-हिंद