साफ़ आता है नज़र अंजाम हर आग़ाज़ का
ज़िंदगानी मौत की तम्हीद है मेरे लिए
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क़तरा समझे हक़ीक़त-ए-दरिया क्या
कम न थी सहरा से कुछ भी ख़ाना-वीरानी मिरी
है नाज़िश-ए-काएनात ये पैकर-ए-ख़ाक
होते हैं ख़ुश किसी की सितम-रानियों से हम
ब-ज़ाहिर गर्म है बाज़ार-ए-उल्फ़त
ज़ाहिर में क़ज़ा बहुत सितम ढाती है
नूर-जहाँ का मज़ार
ये किस से आज बरहम हो गई है
मंदिर भी साफ़ हम ने किए मस्जिदें भी पाक
शहर से एक तरफ़ दूर बहुत
वो आई शाम-ए-ग़म वक़्फ़-ए-बला होने का वक़्त आया
दरवाज़े पे तेरे इक जहाँ झुकता है