ये फ़ितरत का तक़ाज़ा था कि चाहा ख़ूब-रूओं को
जो करते आए हैं इंसाँ न करते हम तो क्या करते
Gulzar
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ज़हे क़िस्मत अगर तुम को हमारा दिल पसंद आया
तस्वीर-ए-रहमत
जंगल की ये दिल-नशीं फ़ज़ा ये बरसात
साफ़ आता है नज़र अंजाम हर आग़ाज़ का
काला इंसान हो या कोई ज़र्द इंसान
बुरा हो उल्फ़त-ए-ख़ूबाँ का हम-नशीं हम तो
मंदिर भी साफ़ हम ने किए मस्जिदें भी पाक
है ये पुर-दर्द दास्ताँ 'महरूम'
दस्त-ए-ख़िरद से पर्दा-कुशाई न हो सकी
जब काली घटाएँ झूम कर आती हैं
बाइस-ए-इम्बिसात हो आमद-ए-नौ-बहार क्या
नज़र उठा दिल-ए-नादाँ ये जुस्तुजू क्या है