दरवाज़े पे तेरे इक जहाँ झुकता है
ऊँचे ऊंचों का सर यहाँ झुकता है
क्यूँ कर न झुके ज़मीं में वक़अत क्या है
बा-इज्ज़-ओ-नियाज़ आसमाँ झुकता है
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काविशों से अमाँ मिले न मिले
शहर से एक तरफ़ दूर बहुत
बदनाम हूँ पर आशिक़-ए-बदनाम तुम्हारा
ज़ाहिर में क़ज़ा बहुत सितम ढाती है
हंगामा तिरा ही गर्म हर इक सू है
साफ़ आता है नज़र अंजाम हर आग़ाज़ का
हूँ वो बर्बाद कि क़िस्मत में नशेमन न क़फ़स
ये किस से आज बरहम हो गई है
इस का गिला नहीं कि दुआ बे-असर गई
न इल्म है न ज़बाँ है तो किस लिए 'महरूम'
रंगीनी-बज़्म-ओ-बू किस की है
बाद-ए-तर्क-ए-आरज़ू बैठा हूँ कैसा मुतमइन