जब काली घटाएँ झूम कर आती हैं
सावन का गीत कोयलें गाती हैं
तब याद में गुज़री हुई बरसातों की
आँखें मिरी सैल-ए-अश्क बरसाती हैं
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नूर-जहाँ का मज़ार
वही अरमान जैसे जी जो मुश्किल से निकलते हैं
हम भूल को अपनी इल्म-ओ-फ़न समझे हैं
दाम-ए-ग़म-ए-हयात में उलझा गई उमीद
तस्वीर-ए-रहमत
ग़लत की हिज्र में हासिल मुझे क़रार नहीं
दिल के तालिब नज़र आते हैं हसीं हर जानिब
न इल्म है न ज़बाँ है तो किस लिए 'महरूम'
तलातुम आरज़ू में है न तूफ़ाँ जुस्तुजू में है
बदनाम हूँ पर आशिक़-ए-बदनाम तुम्हारा
कम न थी सहरा से कुछ भी ख़ाना-वीरानी मिरी
वो दिल कहाँ है अहल-ए-नज़र दिल कहें जिसे