राज़-ए-हस्ती बशर को हो क्या मालूम
सरगर्दां अक़्ल है नतीजा मालूम
बा-वस्फ़ हज़ार इल्म उस को अपना
आगा मा'लूम है न पीछा मा'लूम
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उड़ते देखा जो ताइर-ए-पर्रां को
तलातुम आरज़ू में है न तूफ़ाँ जुस्तुजू में है
हर राह में है राह-नुमा नाम तिरा
न रही बे-ख़ुदी-ए-शौक़ में इतनी भी ख़बर
न इल्म है न ज़बाँ है तो किस लिए 'महरूम'
वो दिल कहाँ है अहल-ए-नज़र दिल कहें जिसे
मंदिर भी साफ़ हम ने किए मस्जिदें भी पाक
फ़िक्र-ए-मआश ओ इश्क़-ए-बुताँ याद-ए-रफ़्तगाँ
ग़लत की हिज्र में हासिल मुझे क़रार नहीं
इंकार-ए-गुनाह भी किए जाता हूँ
राज़-ए-हस्ती बशर को हो क्या मा'लूम
नूर-जहाँ का मज़ार