उड़ते देखा जो ताइर-ए-पर्रां को
उड़ने की उमंग ले उड़ी इंसाँ को
गोले बरसाए ज़मीं पर उस ने
पर्वाज़ नसीब जब हुई नादाँ को
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नज़र उठा दिल-ए-नादाँ ये जुस्तुजू क्या है
हूँ वो बर्बाद कि क़िस्मत में नशेमन न क़फ़स
नूर-जहाँ का मज़ार
यूँ तो बरसों न पिलाऊँ न पियूँ ऐ ज़ाहिद
है ये पुर-दर्द दास्ताँ 'महरूम'
दिल में कहते हैं कि ऐ काश न आए होते
ये फ़ितरत का तक़ाज़ा था कि चाहा ख़ूब-रूओं को
न रही बे-ख़ुदी-ए-शौक़ में इतनी भी ख़बर
ज़ाहिर में क़ज़ा बहुत सितम ढाती है
होते हैं ख़ुश किसी की सितम-रानियों से हम
हम भूल को अपनी इल्म-ओ-फ़न समझे हैं
इस का गिला नहीं कि दुआ बे-असर गई