ज़ाहिर में क़ज़ा बहुत सितम ढाती है
जाँ सुन के अजल का नाम डर जाती है
लेकिन हर मौत का नतीजा है हयात
हर शाम पैग़ाम-ए-सुब्ह-ए-नौ लाती है
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हम भूल को अपनी इल्म-ओ-फ़न समझे हैं
अक़्ल को क्यूँ बताएँ इश्क़ का राज़
फ़िक्र-ए-मआश ओ इश्क़-ए-बुताँ याद-ए-रफ़्तगाँ
मंदिर भी साफ़ हम ने किए मस्जिदें भी पाक
न रही बे-ख़ुदी-ए-शौक़ में इतनी भी ख़बर
राज़-ए-हस्ती बशर को हो क्या मा'लूम
न इल्म है न ज़बाँ है तो किस लिए 'महरूम'
इस का गिला नहीं कि दुआ बे-असर गई
हैरत-ज़दा मैं उन के मुक़ाबिल में रह गया
है ये पुर-दर्द दास्ताँ 'महरूम'
तस्वीर-ए-रहमत