जबीं Poetry

सुल्तान अख़्तर पटना के नाम

रज़ा नक़वी वाही

हिज्र

अज़ीमुद्दीन अहमद

नए आदमी का कंफ़ेशन

ग़ज़नफ़र

इंतिज़ार के बा'द

शहर-ए-आलाम का शहरयार आ गया

मुझे ज़मान-ओ-मकाँ की हुदूद में न रख

ज़ुल्फ़िकार नक़वी

रास आने लगी थी तन्हाई

ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी

बसाई मैं ने जो क़ल्ब-ए-हज़ीं में

ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी

बसाई मैं ने जो क़ल्ब-ए-हज़ीं में

ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी

मिरी ज़ात का हयूला तिरी ज़ात की इकाई

ज़ुहैर कंजाही

लोग कहते हैं यहाँ एक हसीं रहता था

ज़ुबैर फ़ारूक़

कूचा-ए-यार में मैं ने जो जबीं-साई की

ज़ियाउल हक़ क़ासमी

सुब्ह से शाम तक

ज़िया जालंधरी

किस शेर में सना-ए-रुख़-ए-मह-जबीं नहीं

ज़ेबा

ऐसी तश्बीह फ़क़त हुस्न की बदनामी है

ज़ेबा

आबला-पाई है महरूमी है रुस्वाई है

ज़रीना सानी

'अनीस-नागी' के नाम

ज़ाहिद मसूद

बिसात-ए-शौक़ के मंज़र बदलते रहते हैं

ज़ाहिद फ़ारानी

चमन में सैर-ए-गुल को जब कभी वो मह-जबीं निकले

ज़ाहिद चौधरी

जो हौसला हो तो हल्की है दोपहर की धूप

ज़हीर सिद्दीक़ी

मिरा ही बन के वो बुत मुझ से आश्ना न हुआ

ज़हीर काश्मीरी

दिल गया दिल का निशाँ बाक़ी रहा

ज़हीर देहलवी

अक्स ज़ख़्मों का जबीं पर नहीं आने देता

ज़फ़र सहबाई

मेरे अंदर वो मेरे सिवा कौन था

ज़फ़र इक़बाल

दिल का ये दश्त अरसा-ए-महशर लगा मुझे

ज़फ़र इक़बाल

जो अपनी है वो ख़ाक-ए-दिल-नशीं ही काम आएगी

ज़फ़र गोरखपुरी

फूल अपने वस्फ़ सुनते हैं उस ख़ुश-नसीब से

वसीम ख़ैराबादी

इक-बटा-दो को करूँ क्यूँ न रक़म दो-बटा-चार

वक़ार हिल्म सय्यद नगलवी

हो रही है दर-ब-दर ऐसी जबीं-साई कि बस

वामिक़ जौनपुरी

मग़्ज़-ए-बहार इस बरस उस बिन बचा न था

वली उज़लत

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