सृष्टि Poetry

'आदिल' सजे हुए हैं सभी ख़्वाब ख़्वान पर

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

पेड़ों से बात-चीत ज़रा कर रहे हैं हम

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

ज़िंदगी यूँ भी कभी मुझ को सज़ा देती है

ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर

जहाँ से दोश-ए-अज़ीज़ाँ पे बार हो के चले

ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़

रख दिया ख़ल्क़ ने नाम उस का क़यामत ऐ 'ज़ेब'

ज़ेब उस्मानिया

ख़ाक पर ही मिरे आँसू हैं न दामन में कहीं

ज़ेब उस्मानिया

बढ़े कुछ और किसी इल्तिजा से कम न हुए

ज़फ़र मुरादाबादी

ज़िंदा भी ख़ल्क़ में हूँ मरा भी हुआ हूँ मैं

ज़फ़र इक़बाल

तिरे रास्तों से जभी गुज़र नहीं कर रहा

ज़फ़र इक़बाल

सफ़र कठिन ही सही जान से गुज़रना क्या

ज़फ़र इक़बाल

कुछ दिनों से जो तबीअत मिरी यकसू कम है

ज़फ़र इक़बाल

जो बंदा-ए-ख़ुदा था ख़ुदा होने वाला है

ज़फ़र इक़बाल

हवा बदल गई उस बेवफ़ा के होने से

ज़फ़र इक़बाल

ऐसी कोई दरपेश हवा आई हमारे

ज़फ़र इक़बाल

हर सम्त शोर-ए-बंदा ओ साहिब है शहर में

ज़फ़र अज्मी

ज़बाँ कुछ और कहती है नज़र कुछ और कहती है

याक़ूब उस्मानी

आया जो मौसम-ए-गुल तो ये हिसाब होगा

वज़ीर अली सबा लखनवी

तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ज़ेर-ए-आसमाँ की समेट

वलीउल्लाह मुहिब

जौन से रस्ते वो हो निकले उधर पहरों तलक

वलीउल्लाह मुहिब

बे-इश्क़ जितनी ख़ल्क़ है इंसाँ की शक्ल में

वलीउल्लाह मुहिब

वहीं जी उठते हैं मुर्दे ये क्या ठोकर से छूना है

वलीउल्लाह मुहिब

मैं जीते-जी तलक रहूँ मरहून आप का

वलीउल्लाह मुहिब

देखा जो कुछ जहाँ में कोई दम ये सब नहीं

वलीउल्लाह मुहिब

जिन दिनों हम उस शब-ए-हज़ के सियह-कारों में थे

वली उज़लत

सुना है कूच तो उन का पर इस को क्या कहिए

वाजिद अली शाह अख़्तर

फ़रेब-ए-राह-ए-मोहब्बत का आसरा भी नहीं

वहीदुल हसन हाश्मी

ज़बान-ए-ख़ल्क़ पे आया तो इक फ़साना हुआ

वहीद अख़्तर

आख़िर वो इज़्तिराब के दिन भी गुज़र गए

वारिस किरमानी

नूर-जहाँ का मज़ार

तिलोकचंद महरूम

ख़िज़ाँ-नसीबों पे बैन करती हुई हवाएँ

तारिक़ क़मर

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