शाखा Poetry

पतझड़ का मौसम था लेकिन शाख़ पे तन्हा फूल खिला था

बिमल कृष्ण अश्क

भली हो या कि बुरी हर नज़र समझता है

अतुल अजनबी

शहर की गलियाँ चराग़ों से भर गईं

जवाज़ जाफ़री

वो हातिफ़ की ज़बान में कलाम करने लगी

जवाज़ जाफ़री

वही मैं हूँ वही मेरी कहानी है

मोईन निज़ामी

उठा कर बर्क़-ओ-बाराँ से नज़र मंजधार पर रखना

ज़ुबैर शिफ़ाई

सियाह-रात पशेमाँ है हम-रकाबी से

अहमद फ़ाख़िर

सुलग रहा है कोई शख़्स क्यूँ अबस मुझ में

अब्दुल्लाह कमाल

रफ़्तार-ए-तेज़-तर का भरम टूटने लगे

शोएब निज़ाम

मैं ने अपना वजूद गठड़ी में बाँध लिया

जवाज़ जाफ़री

मैं ने कब बर्क़-ए-तपाँ मौज-ए-बला माँगी थी

ज़ुबैर रिज़वी

नज़र नज़र से मिलाओगे मारे जाओगे

ज़ुबैर क़ैसर

दर्द की शाख़ पे इक ताज़ा समर आ गया है

ज़िया ज़मीर

वो शाख़ बने-सँवरे वो शाख़ फले-फूले

ज़िया जालंधरी

तसलसुल

ज़िया जालंधरी

तन्हा

ज़िया जालंधरी

ताबा कै

ज़िया जालंधरी

पैग़ाम

ज़िया जालंधरी

हम

ज़िया जालंधरी

हाबील

ज़िया जालंधरी

चाक

ज़िया जालंधरी

अधूरी

ज़िया जालंधरी

उफ़्ताद तबीअत से इस हाल को हम पहुँचे

ज़िया जालंधरी

शादाब शाख़-ए-दर्द की हर पोर क्यूँ नहीं

ज़िया जालंधरी

मुंजमिद होंटों पे है यख़ की तरह हर्फ़-ए-जुनूँ

ज़िया जालंधरी

तू ने नज़रों को बचा कर इस तरह देखा मुझे

ज़िया फ़तेहाबादी

वक़्त की बर्फ़ है हर तौर पिघलने वाली

ज़ीशान साजिद

न अब्र से तिरा साया न तू निकलता है

ज़ेब ग़ौरी

मौज-ए-रेग सराब-सहरा कैसे बनती है

ज़ेब ग़ौरी

ख़ंजर चमका रात का सीना चाक हुआ

ज़ेब ग़ौरी

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