अपनेपन Poetry

तिरी शबीह को लिक्खा है रंग-ओ-बू मैं ने

एहतिमाम सादिक़

नज़र को क़ुर्ब-ए-शनासाई बाँटने वाले

हनीफ़ राही

माना कि यहाँ अपनी शनासाई भी कम है

ज़िया ज़मीर

बड़ा शहर

ज़िया जालंधरी

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ज़ीशान साहिल

फ़िराक़-ए-यार के लम्हे गुज़र ही जाएँगे

ज़हीर काश्मीरी

हद हो चक्की है शर्म-ए-शकेबाई ख़त्म हो

ज़फ़र इक़बाल

ऐसी कोई दरपेश हवा आई हमारे

ज़फ़र इक़बाल

क़िस्सा-ख़्वानी

यामीन

मैं औरों को क्या परखूँ आइना-ए-आलम में

वाहिद प्रेमी

जो दश्त-ए-तमन्ना में हर वक़्त भटकता है

वाहिद प्रेमी

ख़ुद के एहसास-ए-मोहब्बत ने मुझे ज़िंदा रखा

उर्मिलामाधव

घर में बैठूँ तो शनासाई बुरा मानती है

तारिक़ मतीन

रहगुज़र हो या मुसाफ़िर नींद जिस को आए है

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

ये भी शायद तिरा अंदाज़-ए-दिल-आराई है

सुलैमान अरीब

जिस दिन से मिरी तुम से शनासाई हुई है

सिया सचदेव

बे-ख़याली में कहा था कि शनासाई नहीं

सिदरा सहर इमरान

न पूछ मर्ग-ए-शनासाई का सबब क्या है

सिद्दीक़ मुजीबी

अजनबी

शाज़ तमकनत

कुछ अजब आन से लोगों में रहा करते थे

शाज़ तमकनत

जिस तरफ़ जाऊँ उधर आलम-ए-तन्हाई है

शाज़ तमकनत

ना-शनासान-ए-मुहब्बत का गिला क्या कि यहाँ

शौकत परदेसी

एक आसेब का साया था जो सर से उतरा

शौकत काज़मी

मुमकिन ही न थी ख़ुद से शनासाई यहाँ तक

शारिक़ कैफ़ी

ज़र्फ़ तो देखिए मेरे दिल-ए-शैदाई का

शरफ़ मुजद्दिदी

दिलों के माबैन शक की दीवार हो रही है

शकील जमाली

कुछ दिनों के लिए मंज़र से अगर हट जाओ

शकील आज़मी

बात से बात की गहराई चली जाती है

शकील आज़मी

ख़ुद ही मिल बैठे हो ये कैसी शनासाई हुई

शहज़ाद अहमद

ख़ल्क़ ने छीन ली मुझ से मिरी तन्हाई तक

शहज़ाद अहमद

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