कई सम्तों में रस्ता बट रहा है
मुसाफ़िर सोच में डूबा हुआ है
ये मुमकिन है कि उस से हार जाऊँ
मिरी ही तरह से वो सोचता है
नज़र-अंदाज़ क्यूँ करते हो इस को
बदन भी इश्क़ में इक मरहला है
जुदाई लफ़्ज़ से भी काँपते हैं
तअ'ल्लुक़ इतना गहरा हो गया है
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मैं तो किसी जुलूस में गया नहीं
न हम-सफ़र है न हम-नवा है
दाग़ होने लगे ज़ाहिर मेरे
ये सदा काश उसी ने दी हो
बारिश में अक्सर ऐसा हो जाता है
कोई उस के बराबर हो गया है
ज़र्रों की बातों में आने वाला था
कौन तहलील हुआ है मुझ में
सब के आगे नहीं बिखरना है
मेरी कोशिश तो यही है कि ये मा'सूम रहे
मोहब्बत के आदाब सीखो ज़रा
मुसाफ़िरों के लिए साज़गार थोड़ी है